गूंजेगी किलकारी: लाइलाज नहीं है बांझपन
उमेश कुमार सिंह
किसी महिला के लिए सृष्टि की सबसे बड़ी नियामत है, उसका मां बनना। अगर किसी भी कारणवश ऐसा नहीं होता है तो उसे बांझ की संज्ञा दे दी जाती है। ऐसे ही महिलाओं की समस्याओं ने आईवीएफ की तकनीक का विकास कराया। आज देश में कृत्रिम विधि से संतान प्राप्ति की कई तकनीकें हैं।
बांझपन या इनफर्टिलिटी की समस्या आज एक आम बात हो गई है। दिनों-दिन बढ़ती जा रही इस समस्या से ग्रस्त लोगों के तनाव को दूर करने के लिए वैज्ञानिकों की कोशिशों ने काफी सफलता प्राप्त की है। विश्व के प्रथम परखनली शिशु ‘लुईस ब्राउन’ का जन्म 28 जुलाई, 1978 को हुआ। फिर तो इस तकनीक ने विश्व में हजारों लोगों के जीवन में खुशियां फैला दी हैं इन परखनली शिशुओं ने। प्रायः बांझपन के कारण विवाहित जीवन कई प्रकार के दुःखों से भर जाता है और यहां भी स्त्री को तिरस्कार और तनाव का सामना करना पड़ता है।
यहां यह प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण है कि आखिर एक औरत कब और क्यों शादी के बाद मां नहीं बन पाती है। आज महानगरीय बदली जीवन शैली में प्रदूषण और तनाव के साथ-साथ बदली समाजिक और व्यावहारिक मान्यताओं ने कई समस्याएं महानगरों को उपहार में दी हैं। यह बदली जीवन शैली की ही देन है कि महिलाओं में बांझपन की समस्या बढ़ती जा रही है।
नई दिल्ली स्थित न्यूटेक मैडीवर्ल्ड के निदेशक डा. गीता शर्राफ का कहना है कि डॉक्टरों के अनुसार 40 प्रतिशत बांझपन पुरुष की कमी से और 40 प्रतिशत मामलों में महिला में कमी पायी जाती है, बाकी लगभग 20 प्रतिशत मामलों में कारणों का पता नहीं लग पाता है। अतः स्पष्ट है कि बांझपन की उत्तरदायी जितनी महिला है, उतना ही पुरुष भी है। लेकिन सच्चाई तो यह है कि दोष किसी का नहीं होता, यह सब प्रकृति का खेल है। लेकिन फिर भी स्त्री को वास्तव में मातृत्व से ही नारीत्व का अहसास होता है। अगर कोई स्त्री मां नहीं बन पाती है, तो वह इतनी हताश एवं कुंठित हो जाती है कि वह लोगों के बीच जाना ही छोड़ देती है। कारण है कि बांझपन का उत्तरदायी हमेशा स्त्री को ही समझा जाता है।
भारत में लगभग 15 प्रतिशत दम्पति बच्चा पैदा करने में असफल पाये जाते हैं तथा उनमें से कुछ को सहायक गर्भ उपचार की आवश्यकता होती है ताकि बांझपन की समस्या से छुटकारा मिल सकें। आज इनफर्टिलिटी रिसर्च इंस्टीट्यूटों में ऐसी आधुनिक तकनीकें उपलब्ध हैं जिनकी सहायता से निःसंतान दंपति भी संतान सुख प्राप्त कर सकते हैं। डा. गीता शर्राफ के अनुसार आज प्रजनन के लिए निम्न विधियां अपनायी जाती हैं।
आई.वी.एफ.- प्रयोगशाला डिश में अण्डे एवं शुक्राणु का मेल कराया जाता है। अगर अंडा निषेचित हो जाता है, तो 2 दिन बाद भ्रूण को स्त्री के गर्भाशय में डाल दिया जाता है।
गैमीट डंट्राफैलोपियन ट्रांस्फर (गिप्टी) – इस क्रिया में पुरुष के शुक्राणु को स्त्री के अंडे में प्रतिस्थापित किया जाता है। इस क्रिया में प्रतिस्थापन एक साथ किया जाता हैं (मासिक चक्र में एक उपयुक्त अवसर के समय) तथा सीधे फैलोपियन नलिका में किया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि निषेचक एक प्राकृतिक वातावरण में पूरा हो, न कि शरीर के बाहर।
न्यू आई. यू. आई. – डा. गीता शर्राफ का कहना है कि यह एक साधरण विधि होती है जिसमें पति के शुक्राणु को (जो फ्रिज में सुरक्षित रखा होता है) किसी अज्ञात दान किए गए अंडे के साथ कैथेटर की सहायता से सीधे गर्भाशय में डाल दिया जाता है। जब पुरुष में शुक्राणुओं की कमी होती है। इस काम में अंडाशय को अति आवेगित किया जाता है और क्रिया पूरी हो जाती है।
जाइगोट इंट्रा-फैलोपिन ट्रांस्फर (जिफ्ट) – इसमें पूरी क्रिया दो बार में पूर्ण होती है। अण्डे को प्रयोगशाला में निषेचित किया जाता है और प्राप्त जाइगोट (निषेचित अंडा) को फैलोपियन नलिका में प्रतिस्थापित या स्थानान्तरित कर दिया जाता है। जिफ्ट विधि आई.वी.एफ. से काफी मिलती-जुलती है। सिवा इसके कि निषेचित अंडे को कुछ घंटे बाद स्थानान्तरित कर दिया जाता है और ये स्थानान्तरण नली में होता है न कि गर्भाशय में।
इंट्रा-साइटोप्लाज्मिक स्पर्म इन्जैक्शन (आई. सी. एस. आई.) – इस क्रिया में पुरुष के शुक्राणु को स्त्री के कोशिका द्रव्य में प्रवेश करा दिया जाता है। प्राप्त भ्रूण को गर्भाशय में पंहुचा दिया जाता है। इस क्रिया में सफलता का प्रतिशत लगभग 30 प्रतिशत तक रहता है। इसको डिस्को यानी, डायरेक्ट इंजेक्शन ऑफ स्पर्म इंटु साइटोप्लाज्म ऑफ ओसाइट, भी कहते हैं अर्थात् इंजेक्शन द्वारा शुक्राणु का अंडे में सीधे प्रवेश करा दिया जाता है। आई. सी.एस.आई. का प्रयोग तब किया जाता है, जब पुरुष के वीर्य में अधिक शुक्राणु नहीं होते हैं या शुक्राणु अचल होते हैं। दूसरी तरफ अगर वीर्य में कोई शुक्राणु अचल होते हैं। तो उस केस में डॉक्टर पुरुष के वृषण से सीधे शुक्राणु निकाल लेते हैं। इस क्रिया में जो मुख्य दो विधियां अपनायी जाती हैं, वे हैं टेसा (अर्थात् टैस्टीक्युलर स्पर्म ऐस्पिरेशन) या मेसा अर्थात् माइक्रो एपिडिडाइमल स्पर्म ऐस्पिरेशन।